स्वर वर्ण एवं इसके प्रकार - सजातीय/विजातीय स्वर
स्वर उन वर्णों या ध्वनियों को कहते हैं, जिनका उच्चारण स्वतः होता है। जैसे— अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ
इनकी संख्या 11 है। ये व्यंजन वर्णों के उच्चारण में भी सहायक होते हैं। जैसे— क = क् + अ या ख = ख् + अ
नोट— (1)कुछ वैयाकरण 'ऋ' को स्वर नहीं मानते हैं। उनका तर्क है कि इसका उच्चारण प्रायः 'रि'—जैसा होता है, लेकिन मात्रा की दृष्टि से 'ऋ' स्वर है। जैसे—
ऋषभ, ऋषि, ऋण, ऋतु आदि में 'रि'–व्यंजन ध्वनि
कृषक, कृषि, पितृण, पृष्ठ आदि में ' ृ' –स्वर की मात्रा
(2) अं ( ं) और अः (:) – हिन्दी वर्णमाला में 'अं' और 'अः' को स्वरों के साथ लिखने की परंपरा है, लेकिन 'अं' (अनुस्वार) और 'अः' (विसर्ग) न स्वर हैं न व्यंजन। इन्हें 'अयोगवाह' कहा जाता है।
(3) ऑ (ॅ) – इसे 'अर्द्धचन्द्र' भी कहते हैं। इसका उच्चारण स्वर की तरह होता है, लेकिन यह अँगरेजी की स्वर ध्वनि है। इसे गृहीत / आगत स्वर ध्वनि कहते हैं। इसका प्रयोग प्रायः अँगरेजी के शब्दों में होता है । जैसे - ऑफिस, ऑफसेट, कॉलेज, नॉलेज, स्पॉट, स्टॉप आदि।
स्वर वर्ण के भेद— इसे मुख्यतः दो आधारों पर विभाजित किए जाते हैं—
- उच्चारण में लगनेवाले समय और
- जाति के आधार पर।
1. उच्चारण में लगनेवाले समय या उच्चारण-काल के आधार पर स्वरों के तीन भेद हैं—
(क) ह्रस्व स्वर,
(ख) दीर्घ स्वर तथा
(ग) प्लुत स्वर
(क) ह्रस्व स्वर–अ, इ, उ एवं ऋ ह्रस्व स्वर हैं। इन्हें मूल स्वर भी कहते । ये एकमात्रिक होते हैं तथा इनके उच्चारण में दीर्घ स्वर की अपेक्षा आधा समय लगता है।
(ख) दीर्घ स्वर - आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ एवं औ दीर्घ स्वर हैं। इनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर की अपेक्षा दुगना समय लगता है। चूँकि इनमें दो मात्राओं का समय लगता है, अतः इन्हें द्विमात्रिक स्वर भी कहते हैं। दूसरे शब्दों में, इनमें दो स्वरों की संधि रहती है। जैसे—
- आ = अ + अ
- ई= इ + इ
- ऊ= उ + उ
- ए= (अ + इ) / (अ + ई) / (आ+ इ) / (आ+ ई)
- ऐ= (अ + ए) / (आ+ ए)
- ओ = (अ + उ) / (आ+उ) / (आ+ ऊ)
- औ= (अ +ओ) / (आ+ ओ) / (अ + औ) / (आ+ औ)
नोट – इन्हीं दीर्घ स्वरों में— ए, ऐ, ओ तथा औ संयुक्त स्वर हैं।
ह्रस्व स्वर और दीर्घ स्वर में लगनेवाले समय को इन शब्दों के उच्चारण से समझा जा सकता है—
ह्रस्व उच्चारण | अड़ | बल | इडा | दिन | उष्मा |
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दीर्घ उच्चारण | आड़ | बाल | ईडा | दीन | ऊष्मा |
(ग) प्लुत स्वर – जिस स्वर के उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी ज्यादा समय लगता है, उसे प्लुत स्वर कहते हैं। किसी को देर तक पुकारने या नाटक संवाद में इसका प्रयोग देखा जाता है; वैदिक मन्त्रों में भी इसका प्रयोग पाया जाता है। इसे त्रिमात्रिक स्वर भी कहते हैं। इसके लिए ३ का अंक लगाया जाता है। जैसे—ओ३म् ।
2. जाति के आधार पर स्वर के दो भेद हैं—
(क) सजातीय स्वर या सवर्ण तथा
(ख) विजातीय स्वर या असवर्ण
(क) सजातीय या सवर्ण— अ-आ, इ-ई , उ-ऊ, आदि जोड़े आपस में सजातीय या सवर्ण कहे जाते हैं, क्योंकि ये एक ही उच्चारण ढंग या उच्चारण प्रयत्न से उच्चरित होते हैं। इनमें सिर्फ मात्रा का अंतर होता है।
(ख) विजातीय स्वर या असवर्ण— अ-इ, अ-ई, अ-उ, अ-ऊ, आ-इ, आ-ई आदि जोड़े आपस में विजातीय स्वर या असवर्ण हैं, क्योंकि ये दो उच्चारण ढंग या उच्चारण-प्रयत्न से उच्चरित होते हैं।