हिंदी भाषा का परिवार
जिस प्रकार मनुष्यों का अपना वंश और परिवार होता है, ठीक उसी तरह भाषा का भी है। किसी एक भाषा-परिवार की समस्त भाषाओं का जन्म, किसी एक मूल भाषा से हुआ माना जाता है। जब एक जगह के निवासी दूर-दराज में जाकर बसते चले गए, तब वहाँ की भाषा और इनकी भाषा के मेल से एक तीसरी भाषा विकसित होती चली गई। ऐसी भाषाएँ जो एक ही वंश (मूल भाषा) से निकलकर विकसित हुईं, सम्मिलित रूप से एक भाषा-परिवार कहलाती हैं। फिर कालांतर में उनके भी उप-परिवार बनते चले गए।
हिन्दी तथा उत्तर भारत की अधिकतर भाषाएँ–सिन्धी, पंजाबी, हरियाणवी, गुजराती, बँगला, मराठी, नेपाली (विदेशी भाषा) आदि आर्य-परिवार की भाषाएँ मानी जाती हैं, जिनका मूल स्रोत संस्कृत है। यह आश्चर्य की बात है कि संस्कृत जिस मूल भाषा से निकली है, उसी से ग्रीक, ईरानी आदि भाषाएँ भी विकसित हुई है और आज इन्हीं की अनेक वंशज भाषाएँ अँगरेजी, जर्मन आदि हैं। अतः इस समस्त भाषा-परिवार को 'भारत-यूरोपीय' भाषा-परिवार कहा जाता है। भारत-यूरोपीय भाषा-परिवार की जो भाषाएँ भारत में बोली जाती हैं— 'भारतीय आर्य भाषाएँ' कहलाती हैं। इनमें क्रमशः वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पालि-प्राकृत तथा अपभ्रंश हैं। इन्हीं से सैकड़ों वर्षों में हिन्दी भाषा का विकास हुआ।
दक्षिण भारत में एक दूसरा भाषा-परिवार है— 'द्रविड़ भाषा-परिवार'। इसकी भाषाएँ है— तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम । सम्पूर्ण विश्व में इन 'भारत-यूरोपीय' (भारोपीय) और 'द्रविड़ भाषा-परिवार' के अतिरिक्त अनेक भाषा-परिवार हैं।